Wednesday, January 26, 2011



खून ही उस खून का बदला लेगा, जो शत्रु ने बहाया है



 

 सुभाष चंद्र बोस.
भारत की स्वतंत्रता के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित करने वाले नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जयंती 23 जनवरी को है। अंग्रेजों की दासता से आजादी का सपना दिखाने वाले स्वतंत्रता के इस नायक के रास्ते में अनेक मुश्किलें एवं चुनौतियां आईं, लेकिन वह अपने उद्देश्य से विचलित नहीं हुए। यहां पेश है इंडियन नेशनल आर्मी की सभा में दिया गया उनका महत्वपूर्ण भाषण : -संपादक


सन् 1941 में कोलकाता से अपनी नजरबंदी से भागकर ठोस स्थल मार्ग से जर्मनी पहुंचे, जहां उन्होंने भारत सेना का गठन किया। जर्मनी में कुछ कठिनाइयां सामने आने पर जुलाई 1943 में वे पनडुब्बी के जरिए सिंगापुर पहुंचे। सिंगापुर में उन्होंने आजाद हिंद सरकार (जिसे नौ धुरी राष्ट्रों ने मान्यता प्रदान की) और इंडियन नेशनल आर्मी का गठन किया।

मार्च एवं जून 1944 के बीच इस सेना ने जापानी सेना के साथ भारत-भूमि पर ब्रिटिश सेनाओं का मुकाबला किया। यह अभियान अंत में विफल रहा, परंतु बोस ने आशा का दामन नहीं छोड़ा। जैसा कि यह भाषण उद्घाटित करता है, उनका विश्वास था कि ब्रिटिश युद्ध में पीछे हट रहे थे और भारतीयों के लिए आजादी हासिल करने का यही एक सुनहरा अवसर था। यह शायद बोस का सबसे प्रसिद्ध भाषण है। इंडियन नेशनल आर्मी के सैनिकों को प्रेरित करने के लिए आयोजित सभा में यह भाषण दिया गया, जो अपने अंतिम शक्तिशाली कथन के लिए प्रसिद्ध है।


'अधिकतम बलिदान' का कार्यक्रम पेश किया

दोस्तों! बारह महीने पहले पूर्वी एशिया में भारतीयों के सामने 'संपूर्ण सैन्य संगठन' या 'अधिकतम बलिदान' का कार्यक्रम पेश किया गया था। आज मैं आपको पिछले साल की हमारी उपलब्धियों का ब्योरा दूंगा तथा आने वाले साल की हमारी मांगें आपके सामने रखूंगा। परंतु ऐसा करने से पहले मैं आपको एक बार फिर यह एहसास कराना चाहता हूं कि हमारे पास आजादी हासिल करने का कितना सुनहरा अवसर है।

अवसर का पूरा लाभ उठाने की कसम खाई 

अंग्रेज एक विश्वव्यापी संघर्ष में उलझे हुए हैं और इस संघर्ष के दौरान उन्होंने कई मोर्चो पर मात खाई है। इस तरह शत्रु के काफी कमजोर हो जाने से आजादी के लिए हमारी लड़ाई उससे बहुत आसान हो गई है, जितनी वह पांच वर्ष पहले थी। इस तरह का अनूठा और ईश्वर-प्रदत्त अवसर सौ वर्षो में एक बार आता है। इसीलिए अपनी मातृभूमि को ब्रिटिश दासता से छुड़ाने के लिए हमने इस अवसर का पूरा लाभ उठाने की कसम खाई है।

विराट आंदोलन बलिदान मांग रहा है तैयार रहें

हमारे संघर्ष की सफलता के लिए मैं इतना अधिक आशावान हूं, क्योंकि मैं केवल पूर्व एशिया के 30 लाख भारतीयों के प्रयासों पर निर्भर नहीं हूं। भारत के अंदर एक विराट आंदोलन चल रहा है तथा हमारे लाखों देशवासी आजादी हासिल करने के लिए अधिकतम दु:ख सहने और बलिदान देने के लिए तैयार हैं।

दुर्भाग्यवश, सन् 1857 के महान् संघर्ष के बाद से हमारे देशवासी निहत्थे हैं, जबकि दुश्मन हथियारों से लदा हुआ है। आज के इस आधुनिक युग में निहत्थे लोगों के लिए हथियारों और एक आधुनिक सेना के बिना आजादी हासिल करना नामुमकिन है। ईश्वर की कृपा और उदार नियम की सहायता से पूर्वी एशिया के भारतीयों के लिए यह संभव हो गया है कि एक आधुनिक सेना के निर्माण के लिए हथियार हासिल कर सकें।

इसके अतिरिक्त, आजादी हासिल करने के प्रयासों में पूर्वी एशिया के भारतीय एकसूत्र में बंधे हुए हैं तथा धार्मिक और अन्य भिन्नताओं का, जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने भारत के अंदर हवा देने की कोशिश की, यहां पूर्वी एशिया में नामोनिशान नहीं है। इसी के परिणामस्वरूप आज परिस्थितियों का ऐसा आदर्श संयोजन हमारे पास है, जो हमारे संघर्ष की सफलता के पक्ष में है - अब जरूरत सिर्फ इस बात की है कि अपनी आजादी की कीमत चुकाने के लिए भारती स्वयं आगे आएं।

'संपूर्ण सैन्य संगठन' के कार्यक्रम के अनुसार मैंने आपसे जवानों, धन और सामग्री की मांग की थी। जहां तक जवानों का संबंध है, मुझे आपको बताने में खुशी हो रही है कि हमें पर्याप्त संख्या में रंगरूट मिल गए हैं। हमारे पास पूर्वी एशिया के हर कोने से रंगरूट आए हैं - चीन, जापान, इंडोचीन, फिलीपींस, जावा, बोर्नियो, सेलेबस, सुमात्रा, मलाया, थाईलैंड और बर्मा से।

आपको और अधिक उत्साह एवं ऊर्जा के साथ जवानों, धन तथा सामग्री की व्यवस्था करते रहना चाहिए, विशेष रूप से आपूर्ति और परिवहन की समस्याओं का संतोषजनक समाधान होना चाहिए।

हमें मुक्त किए गए क्षेत्रों के प्रशासन और पुनर्निर्माण के लिए सभी श्रेणियों के पुरुषों और महिलाओं की जरूरत होगी। हमें उस स्थिति के लिए तैयार रहना चाहिए, जिसमें शत्रु किसी विशेष क्षेत्र से पीछे हटने से पहले निर्दयता से 'घर-फूंक नीति' अपनाएगा तथा नागरिक आबादी को अपने शहर या गांव खाली करने के लिए मजबूर करेगा, जैसा उन्होंने बर्मा में किया था।

सबसे बड़ी समस्या युद्धभूमि में जवानों और सामग्री की कुमुक पहुंचाने की है। यदि हम ऐसा नहीं करते तो हम मोर्चो पर अपनी कामयाबी को जारी रखने की आशा नहीं कर सकते, न ही हम भारत के आंतरिक भागों तक पहुंचने में कामयाब हो सकते हैं।

आपमें से उन लोगों को, जिन्हें आजादी के बाद देश के लिए काम जारी रखना है, यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि पूर्वी एशिया - विशेष रूप से बर्मा - हमारे स्वातं�य संघर्ष का आधार है। यदि यह आधार मजबूत नहीं है तो हमारी लड़ाकू सेनाएं कभी विजयी नहीं होंगी। याद रखिए कि यह एक 'संपूर्ण युद्ध है - केवल दो सेनाओं के बीच युद्ध नहीं है। इसलिए, पिछले पूरे एक वर्ष से मैंने पूर्व में 'संपूर्ण सैन्य संगठन' पर इतना जोर दिया है।

मेरे यह कहने के पीछे कि आप घरेलू मोर्चे पर और अधिक ध्यान दें, एक और भी कारण है। आने वाले महीनों में मैं और मंत्रिमंडल की युद्ध समिति के मेरे सहयोगी युद्ध के मोरचे पर-और भारत के अंदर क्रांति लाने के लिए भी - अपना सारा ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं। इसीलिए हम इस बात को पूरी तरह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि आधार पर हमारा कार्य हमारी अनुपस्थिति में भी सुचारु रूप से और निर्बाध चलता रहे।

साथियों एक वर्ष पहले, जब मैंने आपके सामने कुछ मांगें रखी थीं, तब मैंने कहा था कि यदि आप मुझे 'संपूर्ण सैन्य संगठन' दें तो मैं आपको एक 'एक दूसरा मोरचा' दूंगा। मैंने अपना वह वचन निभाया है। हमारे अभियान का पहला चरण पूरा हो गया है। हमारी विजयी सेनाओं ने निप्योनीज सेनाओं के साथ कंधे से कंधा मिलाकर शत्रु को पीछे धकेल दिया है और अब वे हमारी प्रिय मातृभूमि की पवित्र धरती पर बहादुरी से लड़ रही हैं।

अब जो काम हमारे सामने हैं, उन्हें पूरा करने के लिए कमर कस लें। मैंने आपसे जवानों, धन और सामग्री की व्यवस्था करने के लिए कहा था। मुझे वे सब भरपूर मात्रा में मिल गए हैं। अब मैं आपसे कुछ और चाहता हूं। जवान, धन और सामग्री अपने आप विजय या स्वतंत्रता नहीं दिला सकते। हमारे पास ऐसी प्रेरक शक्ति होनी चाहिए, जो हमें बहादुर व नायकोचित कार्यो के लिए प्रेरित करें।

सिर्फ इस कारण कि अब विजय हमारी पहुंच में दिखाई देती है, आपका यह सोचना कि आप जीते-जी भारत को स्वतंत्र देख ही पाएंगे, आपके लिए एक घातक गलती होगी। यहां मौजूद लोगों में से किसी के मन में स्वतंत्रता के मीठे फलों का आनंद लेने की इच्छा नहीं होनी चाहिए। एक लंबी लड़ाई अब भी हमारे सामने है।

मरने की इच्छा, ताकि भारत जी सके

आज हमारी केवल एक ही इच्छा होनी चाहिए - मरने की इच्छा, ताकि भारत जी सके; एक शहीद की मौत करने की इच्छा, जिससे स्वतंत्रता की राह शहीदों के खून बनाई जा सके।

साथियों, स्वतंत्रता के युद्ध में मेरे साथियो! आज मैं आपसे एक ही चीज मांगता हूं, सबसे ऊपर मैं आपसे अपना 
खून मांगता हूं। यह खून ही उस खून का बदला लेगा, जो शत्रु ने बहाया है। खून से ही आजादी की कीमत चुकाई जा सकती है। तुम मुझे खून दो और मैं तुम से आजादी का वादा करता हूं।


बोस ने हिटलर से की थी गांधी की तुलना


नई दिल्‍ली. नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने महात्‍मा गांधी की तुलना हिटलर, मुसोलिनी और लेनिन जैसे तानाशाह और क्रांतिकारी नेताओं से की थी। एक किताब में बोस ने लिखा कि गांधी ने जनता की मनोभावना का ठीक वैसे ही दोहन किया, जैसे रूस में लेनिन, जर्मनी में हिटलर और इटली में मुसोलिनी ने किया था।

ऑक्‍सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित बोस की किताब ‘द इंडियन स्‍ट्रगल 1920-1942’ में ये बातें लिखी गई हैं। हालांकि बोस की इन बातों का संदर्भ बहुत नकारात्‍मक नहीं बताया गया है, लेकिन गांधी और नेहरू की राहें जुदा होने की बात इतिहास में दर्ज सच है।

बोस ने किताब में यह भी लिखा है कि भारत में हिंदू समाज में यूरोप की तर्ज पर स्‍थापित चर्च की तरह कभी कोई संस्‍था नहीं रही, लेकिन भारतीय जनमानस को हमेशा से आध्‍यात्मिक शख्सीयत प्रभावित करती रही है और लोग उन्‍हें महात्‍मा, साधु, संत के रूप में पहचानने लगते हैं। और महात्‍मा गांधी राजनीतिक नेता बनने से काफी पहले ही यह दर्जा पा चुके थे। 1920 के नागपुर कांग्रेस सम्‍मेलन में मुहम्‍मद अली जिन्‍ना ने गांधी को ‘मिस्‍टर गांधी’ कह कर संबोधित किया था। वहां मौजूद हजारों लोग तत्‍काल इसके विरोध पर उतर गए और जिन्‍ना से ‘महात्‍मा गांधी’ कह कर संबोधन करने की मांग की।

पर एक सच यह भी है कि गांधी जी नेताजी सुभाष चंद्र बोस के तरीके से लड़ाई नहीं लड़ना चाहते थे। यही वजह थी कि उन्‍होंने उन्‍हें कांग्रेस अध्‍यक्ष पद के चुनाव में हराने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा दिया था। उनके खिलाफ राजेंद्र प्रसाद और पंडित जवाहर लाल नेहरू को उम्‍मीदवार बनने के लिए मनाने में नाकाम रहने पर उन्‍होंने सीतारमैया को खड़ा किया। यह अलग बात थी कि नेता जी करीब 200 मतों के अंतर से जीत कर कांग्रेस अध्‍यक्ष बने। इस पर गांधी जी काफी गुस्‍सा हो गए थे और उन्‍होंने सार्वजनिक रूप से सीतारमैया की हार को अपनी हार बताया था। इसके बाद राजकोट जाकर गांधी जी ने विरोधस्‍वरूप उपवास भी शुरू कर दिया था। कांग्रेस के कलकत्‍ता अधिवेशन में सुभाष चंद्र को तीन साल के लिए कांग्रेस ने प्रतिबंधित कर दिया। तब उन्‍होंने फॉरवर्ड ब्‍लॉक की स्‍थापना की थी।

सुभाष को अध्‍यक्ष चुने जाने का गांधी के विरोध करने पर पूरी कांग्रेस कार्यसमिति ने इस्तीफा दे दिया। हार कर सुभाषचंद्र बोस ने भी अध्यक्ष पद छोड़ दिया। कहा गया कि लोकतांत्रिक ढंग से विजयी एक कांग्रेस अध्यक्ष को गांधी जी ने काम नहीं करने दिया। बोस जब कांग्रेस अध्यक्ष पद से अलग हुए, तो उन्होंने देशव्यापी आंदोलन व विद्रोह आयोजित करने का निर्णय कर लिया। हालांकि सुभाष चंद्र बोस के विमान दुर्घटना में निधन की खबर आने पर महात्मा गांधी ने कहा कि हिंदुस्तान का सबसे बहादुर व्यक्ति आज नहीं रहा।

सुभाष चंद्र बोस  

तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे ‌‌‌आज़ादी दूंगा.. खून भी एक-दो बूंद नहीं, इतना कि खून का एक महासागर तैयार हो जाए और मैं उसमें ब्रिटिश साम्राज्य को डूबो दूं।

इसी गरम जज्‍बे के कारण -नेताजी सुभाष चंद्र बोस को गांधीजी पसंद नहीं करते थे। हालांकि गांधी जी ‌‌‌ने उन्हें "देशभक्तों का देशभक्त" कहा। ‌‌‌उनका दिया नारा "जय हिन्द" भारत का राष्ट्रीय नारा बना। "दिल्ली चलो" का नारा भी उन्होंने ही दिया। ‌‌‌बोस ने ही गांधीजी को "राष्ट्रपिता" की संज्ञा दी।

बोस ने ‌‌‌भारतीय सिविल परीक्षा पास कर आईसीएस पद पाया, लेकिन ‌‌‌‌‌‌आज़ाद देश के लिए उनका खून उबलता रहा। अंतत: उन्‍होंने आईसीएस पद से त्यागपत्र दे दिया। इंग्लैंड से मुम्बई पहुंचे और 20 जुलाई 1921 को गांधीजी से पहली मुलाकात की। गांधीजी ने उन्हें ‌‌‌कलकत्ता के स्वतंत्रता सेनानी देशबंधु ‌‌‌चित्तरंजन दास के साथ काम करने की सलाह दी। ‌‌‌बोस कलकत्ता महापालिका के महापौर बने और अंग्रेजी तौर-तरीकों को बदल डाला। उन्होंने कांग्रेस ‌‌‌में रहकर बहुत काम किए। वे पूर्ण स्वराज चाहते थे।

‌‌‌बोस को 1938 के अधिवेशन में ‌‌‌कांग्रेस अध्यक्ष चुना ‌‌‌गया। 1939 में उन्हें हटाने ‌‌‌की ‌‌‌बात चली। जब नए अध्यक्ष पर एकराय नहीं बनी तो चुनाव हुए। पट्टाभी ‌‌‌सितारमैया ‌‌‌ने बोस के खिलाफ चुनाव लड़ा। सुभाष चंद्र बोस ने 203 वोटों से जीत हासिल की। 1939 के अधिवेशन के बाद 29 अप्रैल 1939 को सुभाष चंद्र बोस ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया।

‌‌‌आज़ादी की लड़ाई लड़ते बोस 11 बार जेल गए। अंग्रेज समझ चुके थे कि यदि बोस ‌‌‌आज़ाद रहे तो भारत से ‌‌‌उनके पलायन का समय बहुत करीब है। अंग्रेज चाहते थे कि वे भारत से बाहर रहें, इसलिए उन्हें जेल में डाले रखा। तबीयत बिगड़ने के बाद वे 1933 से 1936 तक यूरोप में रहे। यूरोप में वे इटली के नेता मुसोलिनी ‌‌‌से मिले। आयरलैंड के नेता डी वलेरा बोस के अच्छे दोस्त बन गए। बर्लिन में बोस जर्मनी के नेताओं से मिले। इसी दौरान उन्होंने ‌‌‌आज़ाद हिन्द ‌‌‌रेडियो की स्थापना की। वे हिटलर से भी मिले। जापान में रहकर उन्होंने ‌‌‌आज़ाद हिन्द फौज में सैनिकों की भर्ती की। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान ‌‌‌आज़ाद हिन्द फौज ने जापानी सेना की मदद से भारत पर आक्रमण किया। फौज ने अंग्रेजों के अंडमान और निकोबार द्वीप जीत लिए। ‌‌‌आज़ाद हिन्द रेडियो पर अपने भाषण के दौरान उन्होंने अपने उद्देश्यों के बारे में बताया। ‌‌‌इस भाषण में नेताजी ने पहली बार गांधीजी को राष्ट्रपिता कहा।

दूसरे विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद नेताजी ने रूस से मदद मांगनी चाही। 18 अगस्त 1945 को ‌‌‌उन्होंने विमान से मांचुरिया के लिए उड़ान तो भरी, लेकिन इसके बाद क्या हुआ, कोई नहीं जानता। खबर आई कि वह विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया। हालांकि उनकी मौत पर संदेह है। ‌‌‌कहा यह भी जाता है कि अंग्रेज सरकार उन्हें जीवित देखना नहीं चाहती थी। इसलिए वह हादसा कराया गया। लेकिन 2005 में ताइवान सरकार ने नेताजी की कथित मौत पर गठित मुखर्जी आयोग को बताया कि 1945 में ताइवान में कोई विमान दुर्घटनाग्रस्त नहीं हुआ। भारत सरकार ने मुखर्जी आयोग की इस रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया।

Tuesday, January 25, 2011


ब्रिटेन में दमकेगा हमारी ‘नूर’ का नूर



द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नाजियों के कब्जे वाले फ्रांस में ब्रिटेन के लिए बहादुरी से जासूसी करने वाली नूर इनायत खान को लोग भूल गए थे। ब्रिटेन के लिए जान देने वाली बहादुर भारतीय महिला को सम्मान देने के लिए अब लंदन में उनकी प्रतिमा लगाई जा रही है।


करीब 65 साल की गुमनामी के बाद ब्रिटेन ने उस बहादुर हिंदुस्तानी महिला को पहचान देने का फैसला किया है। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नूर इनायत खान विंस्टन चर्चिल के विश्वसनीय लोगों में से एक थीं। उन्हें सीक्रेट एजेंट बनाकर नाजियों के कब्जे वाले फ्रांस में भेजा गया था। नूर इनायत ने पेरिस में तीन महीने से ज्यादा वक्त तक सफलतापूर्वक अपना खुफिया नेटवर्क चलाया और नाजियों की जानकारी ब्रिटेन पहुंचाई। इसके बाद वे पकड़ी गईं। उन्हें दस महीने तक बेदर्दी से टॉर्चर किया गया, फिर भी उन्होंने अपनी जुबान नहीं खोली। आखिरकार 13 सितंबर 1944 के दिन उन्हें डाचाउ कॉन्सन्ट्रेशन कैंप में गोली मार दी गई। उस समय उनकी उम्र 30 साल थी।

1949 में नूर इनायत को मरणोपरांत जॉर्ज क्रॉस से नवाजा गया। फिर भी वक्त की धूल इस चमकते हुए नाम पर चढ़ती गई। ऐसे में शर्बनी बसु की लिखी जीवनी ने फिर से उनकी यादें ताजा कर दी हैं। अब लंदन में उनके घर के पास उनकी तांबे से बनी प्रतिमा लगाई जाएगी। यह पहला मौका है जब ब्रिटेन में किसी मुस्लिम या फिर एशियाई महिला की प्रतिमा लग रही है। इसके लिए एक लाख पाउंड जमा किए जा रहे हैं। इस फैसले का वहां एशियाई लोगों के अलावा 34 ब्रिटिश सांसदों ने भी समर्थन किया है।


मेडेलिन नाम रखा गया 

नूर इनायत का जन्म 1 जनवरी 1914 को मॉस्को में हुआ था। उनके पिता भारतीय और मां अमेरिकन थीं। 18वीं सदी में अंग्रेजों को नाकों चने चबवाने वाले टीपू सुल्तान की वे वंशज थीं। उनके पिता धार्मिक शिक्षक थे, जो परिवार के साथ पहले लंदन और फिर पेरिस में बस गए थे। वहीं नूर की पढ़ाई हुई और उन्होंने कहानियां लिखना शुरू किया। नाजियों का जोर बढ़ने पर वे अपने भाई विलायत के साथ ब्रिटेन आ गई थीं। 1940 में वे वहां वूमेन्स ऑक्जिलेरी एयरफोर्स में भर्ती हो गई थीं। दो साल में ही उनके काम के प्रति समर्पण और रेडियो ट्रांसमिटिंग में महारत से अधिकारी काफी प्रभावित हुए। जून 1943 में उन्हें जासूसी के लिए रेडियो ऑपरेटर बनाकर फ्रांस भेज दिया गया था। उनका कोड नाम मेडेलिन रखा गया था। वे भेष बदलकर अलग-अलग जगह से संदेश भेजती रहीं। एक कामरेड की गर्लफ्रेंड ने जलन के मारे उनकी मुखबिरी की और वे पकड़ी गईं। नाजियों ने उनके रेडियो से ब्रिटेन को और एजेंट्स भेजने के संदेश दिए। इन्हें आते ही गेस्टापो ने पकड़ लिया। नवंबर 1943 में उन्हें जर्मनी के फॉर्जेम जेल भेजा गया। यहां उन्हें जंजीरों में जकड़कर सितंबर 1944 तक यातनाएं दी 

क्या भगवानजी ही थे सुभाषचंद्र बोस




राज है गहरा : फैजाबाद में काफी समय तक रहे हरमीत भगवानजी को लोग मानते हैं कि वे नेताजी सुभाषचंद्र बोस थे। दर्जनों ऐसी बातें हैं जो ये साबित भी करती हैं। भारत सरकार ने जस्टिस मुखर्जी कमीशन से इसकी जांच भी करवाई। रिपोर्ट में सबूतों की कमी बताई गई, लेकिन मुखर्जी खुद भी मानते थे कि भगवानजी ही बोस थे।


बहुत से लोगों का मानना है कि उत्तर प्रदेश के फैजाबाद में रहने वाले हरमीत भगवानजी ही सुभाषचंद्र बोस थे। गुमनामी बाबा के नाम से मशहूर भगवानजी का जीवन काफी रहस्यमयी रहा। वे यहां कब और कहां से आए थे, ये कोई नहीं जानता। 1985 में उनकी मौत हो गई थी। कम से कम चार मौकों पर उन्होंने खुद भी कहा था कि वे ही नेताजी हैं। उनकी मौत के बाद कोर्ट के आदेश से उनका सारा सामान कब्जे में ले लिया गया था। फिर जस्टिस मुखर्जी कमीशन ने भी इसकी जांच की थी। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में कहा कि इस बात को साबित करने के लिए पर्याप्त सबूत नहीं हैं। फिर भी बाद में एक डॉक्यूमेंट्री में कहा कि उन्हें भी लगता है कि भगवानजी ही बोस थे।

भगवानजी की मौत 16 सितंबर 1985 में हुई थी। उनका अंतिम संस्कार भी रहस्यमयी तरीके से रात के अंधेरे में मोटर साइकिलों की लाइट्स में किया गया। उनकी पहचान छिपाने के लिए उनका चेहरा भी एसिड से बिगाड़ा गया था। आज भी फैजाबाद के बंगाली लोग सुभाषचंद्र बोस की जयंती पर गुमनामी बाबा की समाधि पर श्रद्धांजलि देते हैं। भगवानजी की आवाज, कद-काठी और उम्र भी नेताजीजैसी ही थी। नेताजी जैसी ही उनकी भी पढ़ने की आदत थी। दोनों के बहुत से दोस्त भी समान थे। नेताजी की तरह उनके दांतों में भी गैप था। उनके पेट के निचले हिस्से में निशान भी नेताजी जैसा ही था। दोनों गोल कांच का चश्मा लगाते थे और घड़ी भी एक जैसी ही पहनते थे। नेताजी के परिवार से जुड़ी बहुत-सी दुर्लभ तस्वीरें और दस्तावेज भगवानजी के घर से बरामद हुए। भगवानजी इंग्लिश, हिन्दी, संस्कृत और जर्मन भाषा में माहिर थे। काफी जांच के बाद भी सुभाषचंद्र बोस की मौत और हरमीत भगवानजी का रहस्य सुलझाया नहीं जा सका।


साजिश था गायब होना
सुभाषचंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 में ओडिशा (अब उड़ीसा) के कटक में हुआ था। समझा जाता है कि 18 अगस्त 1945 को ताइवान में एक विमान दुर्घटना में उनकी मौत हो गई थी। फिर भी ये बाद साबित नहीं होती है। कहा जाता है कि जापान के साथ मिलकर उन्होंने गायब होने के लिए ये साजिश की थी। इसके बाद वे 

रूस जाकर स्टालिन के साथ भारत की आजादी के लिए काम करते रहे।