बोस ने हिटलर से की थी गांधी की तुलना
नई दिल्ली. नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने महात्मा गांधी की तुलना हिटलर, मुसोलिनी और लेनिन जैसे तानाशाह और क्रांतिकारी नेताओं से की थी। एक किताब में बोस ने लिखा कि गांधी ने जनता की मनोभावना का ठीक वैसे ही दोहन किया, जैसे रूस में लेनिन, जर्मनी में हिटलर और इटली में मुसोलिनी ने किया था।
ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित बोस की किताब ‘द इंडियन स्ट्रगल 1920-1942’ में ये बातें लिखी गई हैं। हालांकि बोस की इन बातों का संदर्भ बहुत नकारात्मक नहीं बताया गया है, लेकिन गांधी और नेहरू की राहें जुदा होने की बात इतिहास में दर्ज सच है।
बोस ने किताब में यह भी लिखा है कि भारत में हिंदू समाज में यूरोप की तर्ज पर स्थापित चर्च की तरह कभी कोई संस्था नहीं रही, लेकिन भारतीय जनमानस को हमेशा से आध्यात्मिक शख्सीयत प्रभावित करती रही है और लोग उन्हें महात्मा, साधु, संत के रूप में पहचानने लगते हैं। और महात्मा गांधी राजनीतिक नेता बनने से काफी पहले ही यह दर्जा पा चुके थे। 1920 के नागपुर कांग्रेस सम्मेलन में मुहम्मद अली जिन्ना ने गांधी को ‘मिस्टर गांधी’ कह कर संबोधित किया था। वहां मौजूद हजारों लोग तत्काल इसके विरोध पर उतर गए और जिन्ना से ‘महात्मा गांधी’ कह कर संबोधन करने की मांग की।
पर एक सच यह भी है कि गांधी जी नेताजी सुभाष चंद्र बोस के तरीके से लड़ाई नहीं लड़ना चाहते थे। यही वजह थी कि उन्होंने उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव में हराने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा दिया था। उनके खिलाफ राजेंद्र प्रसाद और पंडित जवाहर लाल नेहरू को उम्मीदवार बनने के लिए मनाने में नाकाम रहने पर उन्होंने सीतारमैया को खड़ा किया। यह अलग बात थी कि नेता जी करीब 200 मतों के अंतर से जीत कर कांग्रेस अध्यक्ष बने। इस पर गांधी जी काफी गुस्सा हो गए थे और उन्होंने सार्वजनिक रूप से सीतारमैया की हार को अपनी हार बताया था। इसके बाद राजकोट जाकर गांधी जी ने विरोधस्वरूप उपवास भी शुरू कर दिया था। कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में सुभाष चंद्र को तीन साल के लिए कांग्रेस ने प्रतिबंधित कर दिया। तब उन्होंने फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना की थी।
सुभाष को अध्यक्ष चुने जाने का गांधी के विरोध करने पर पूरी कांग्रेस कार्यसमिति ने इस्तीफा दे दिया। हार कर सुभाषचंद्र बोस ने भी अध्यक्ष पद छोड़ दिया। कहा गया कि लोकतांत्रिक ढंग से विजयी एक कांग्रेस अध्यक्ष को गांधी जी ने काम नहीं करने दिया। बोस जब कांग्रेस अध्यक्ष पद से अलग हुए, तो उन्होंने देशव्यापी आंदोलन व विद्रोह आयोजित करने का निर्णय कर लिया। हालांकि सुभाष चंद्र बोस के विमान दुर्घटना में निधन की खबर आने पर महात्मा गांधी ने कहा कि हिंदुस्तान का सबसे बहादुर व्यक्ति आज नहीं रहा।
सुभाष चंद्र बोस
तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आज़ादी दूंगा.. खून भी एक-दो बूंद नहीं, इतना कि खून का एक महासागर तैयार हो जाए और मैं उसमें ब्रिटिश साम्राज्य को डूबो दूं।
इसी गरम जज्बे के कारण -नेताजी सुभाष चंद्र बोस को गांधीजी पसंद नहीं करते थे। हालांकि गांधी जी ने उन्हें "देशभक्तों का देशभक्त" कहा। उनका दिया नारा "जय हिन्द" भारत का राष्ट्रीय नारा बना। "दिल्ली चलो" का नारा भी उन्होंने ही दिया। बोस ने ही गांधीजी को "राष्ट्रपिता" की संज्ञा दी।
बोस ने भारतीय सिविल परीक्षा पास कर आईसीएस पद पाया, लेकिन आज़ाद देश के लिए उनका खून उबलता रहा। अंतत: उन्होंने आईसीएस पद से त्यागपत्र दे दिया। इंग्लैंड से मुम्बई पहुंचे और 20 जुलाई 1921 को गांधीजी से पहली मुलाकात की। गांधीजी ने उन्हें कलकत्ता के स्वतंत्रता सेनानी देशबंधु चित्तरंजन दास के साथ काम करने की सलाह दी। बोस कलकत्ता महापालिका के महापौर बने और अंग्रेजी तौर-तरीकों को बदल डाला। उन्होंने कांग्रेस में रहकर बहुत काम किए। वे पूर्ण स्वराज चाहते थे।
बोस को 1938 के अधिवेशन में कांग्रेस अध्यक्ष चुना गया। 1939 में उन्हें हटाने की बात चली। जब नए अध्यक्ष पर एकराय नहीं बनी तो चुनाव हुए। पट्टाभी सितारमैया ने बोस के खिलाफ चुनाव लड़ा। सुभाष चंद्र बोस ने 203 वोटों से जीत हासिल की। 1939 के अधिवेशन के बाद 29 अप्रैल 1939 को सुभाष चंद्र बोस ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया।
आज़ादी की लड़ाई लड़ते बोस 11 बार जेल गए। अंग्रेज समझ चुके थे कि यदि बोस आज़ाद रहे तो भारत से उनके पलायन का समय बहुत करीब है। अंग्रेज चाहते थे कि वे भारत से बाहर रहें, इसलिए उन्हें जेल में डाले रखा। तबीयत बिगड़ने के बाद वे 1933 से 1936 तक यूरोप में रहे। यूरोप में वे इटली के नेता मुसोलिनी से मिले। आयरलैंड के नेता डी वलेरा बोस के अच्छे दोस्त बन गए। बर्लिन में बोस जर्मनी के नेताओं से मिले। इसी दौरान उन्होंने आज़ाद हिन्द रेडियो की स्थापना की। वे हिटलर से भी मिले। जापान में रहकर उन्होंने आज़ाद हिन्द फौज में सैनिकों की भर्ती की। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान आज़ाद हिन्द फौज ने जापानी सेना की मदद से भारत पर आक्रमण किया। फौज ने अंग्रेजों के अंडमान और निकोबार द्वीप जीत लिए। आज़ाद हिन्द रेडियो पर अपने भाषण के दौरान उन्होंने अपने उद्देश्यों के बारे में बताया। इस भाषण में नेताजी ने पहली बार गांधीजी को राष्ट्रपिता कहा।
दूसरे विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद नेताजी ने रूस से मदद मांगनी चाही। 18 अगस्त 1945 को उन्होंने विमान से मांचुरिया के लिए उड़ान तो भरी, लेकिन इसके बाद क्या हुआ, कोई नहीं जानता। खबर आई कि वह विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया। हालांकि उनकी मौत पर संदेह है। कहा यह भी जाता है कि अंग्रेज सरकार उन्हें जीवित देखना नहीं चाहती थी। इसलिए वह हादसा कराया गया। लेकिन 2005 में ताइवान सरकार ने नेताजी की कथित मौत पर गठित मुखर्जी आयोग को बताया कि 1945 में ताइवान में कोई विमान दुर्घटनाग्रस्त नहीं हुआ। भारत सरकार ने मुखर्जी आयोग की इस रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया।
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